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मंगलवार, 21 जुलाई 2015

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (४)

मन !
सब कुछ तय था पहले से ही | मिलना, जुदा होना..फिर , फिर से मिलना | सब कुछ तयबद्ध तरीके से हुआ | वक़्त ने करीने से तय कर रखा है सब | पल पल का हिसाब दिन और रात के खानों में तरतीब से रख दिया है अपनी अलमारी में | ज्यादा भूल भी न हुई होगी बस लिखना भर था पल पल का हिसाब जिन्दगी की पोथी में , जिसको जीना है हमको उन पलों के हिसाब से जो हमारे हिस्से में आये है जीने के लिए | मिलन जुदाई और फिर मिलन इन सबके बीच देखो तो कुछ भी नहीं बदला | वही मैं..वही तुम..वही सब रत्ती भर भी फर्क नहीं | हाँ बदला तो सिर्फ वो वक़्त ..वो पल जो हमने जीया | अलमारी के खानों का धीरे धीरे खाली होना शायद बदलाव है | भीतर तो कुछ भी नहीं बदला ..बाहर जो कुछ है बस यही है |
जीना तो पड़ता है मिलन हो या जुदाई, साँस आती है चली जाती है बेखबर इसके कि हम जीना चाहते हैं या नहीं | वक़्त की रिहाई का पल भी तय कर रखा है ..होगा अलमारी के किसी खाने में अपनी बारी के इंतजार में ..है ना !!


सु-मन 

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