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बुधवार, 3 दिसंबर 2014

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-२)














मन !
ये जो आस की तुरपन है ना ..उधड़ी जाती है अब ..विश्वास के धागे को सिलते सिलते डगमगाती सूई की चुभन का स्पर्श मेरे ज़िस्म से होकर तुम तक जो पहुंचा तो तुम भी रो दिए मुझ संग | विश्वास के धागे की पकड़ कम रही या या आस की तुरपन से बने उन खाली हिस्सों की लम्बाई की बढ़त जिनमें कुछ फ़ासला होना जायज़ था | इस बढ़ते खालीपन को सिलना या यूँ कहो भरना आस का कारण था | ऐसा क्यूँ होता है मन .. क्यूँ एक पल में बंधी आस दूजे पल टूट जाती है | क्यूँ लम्हों को सिलना फिर खुद उन्हें उधेड़ना पड़ता है और वक़्त की मुट्ठी में कैद आस को खालीपन में बींध कर चिन्हित करना पड़ता है भीतर कहीं तुम्हारे पास ||

आस बंधी और फिर टूट गई ..खबर भी नहीं हुई किसी को ..क्या कुछ घट गया भीतर नहीं जान पाया कोई ..जो कुछ घटा तेरे मेरे बीच घटा .. मन अब तो समझा दे ..तू मेरा कौन है !!


सु-मन 

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