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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

घर के आँगन में


घर के आँगन में
नहीं खिलते अब
कोई भी फूल
न ही लगते हैं
कोई बेल बूटे

हवाएं भी उधर से होकर
गुजर जाती हैं
उस मोड़ से मुड़ कर
चली जाती हैं अब तो
पसरी रहती है उमस सी
हर वक़्त-हर घड़ी
जो लील लेती है
बची नमी को भी

वो उधर उस कोने में
हुआ करता था इक पेड़
रहता था जिसमें
एक जोड़ा पंछी का
गुनगुनाता था मेरा आंगन
उनकी प्यार की सरगम से
बिखरी रहती थी ज्यूँ
एक महक सी चहुँ ओर

अब तो रह गया है
सूखा सा तना ही उसका
नहीं उगते हैं जिस पर
अब कोई भी पत्ते
टहनियां भी कभी की
गिर चुकी हैं टूट के

अधटूटे पोखर के
अधबुने से आशियाने में
वो रहती है अब तन्हा
निहारा करती है राह
अपने बिछड़े साथी की
जो आने का बहलावा देकर
न जाने कहाँ उड़ गया

आँगन में अब
नहीं गूंजती सगरम
बस सुनाई देती है
उसकी आहें
कैसे समझाउं मैं
उस नादाँ जान को
जाने वाला नहीं आता
वापिस लौट के
उसके आंसुओं से
हो गई है रुआंसी सी
अब तो
क्यारी की मिट्टी भी
तब से...
घर के आँगन में
नहीं खिलते हैं अब
कोई भी फूल
न ही लगते हैं
कोई बेल बूटे.......!!

सु-मन

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

वटवृक्ष पत्रिका पर प्रकाशित मेरी रचना

मैं आभारी हूँ रविन्द्र प्रभात जी और वटवृक्ष की पूरी टीम की जिन्होंने मेरी रचना को पत्रिका में स्थान दिया .....
तेरा अहसास मन मेरे

तेरा अहसास मन मेरे
मेरे वजूद को
सम्पूर्ण बना देता है
और मैं
उस अहसास के
दायरे में सिमटी
बेतस लता सी
लिपट जाती हूँ
तुम्हारे स्वप्निल स्वरूप से
तब मेरा वजूद
पा लेता है
एक नया स्वरूप
उस तरंग सा
जो उभर आती है
शांत जल में
सूर्य की पहली किरण से
झिलमिलाती है ज्यूँ
हरी दूब में
ओस की नन्ही बूंद
तेरी वो खुली बाहें
मुझे समा लेती हैं
जब अपने आगोश में
तो मन मेरे
मेरा होना
सार्थक हो जाता है
मेरा अस्तित्व
पूर्णता पा जाता है
और उस समर्पण से
अभिभूत हो
मेरी रूह के जर्रे जर्रे से
तेरी खुशबू आने लगती है
महक जाता है
मेरा रोम रोम
पुलकित हो उठता है
एक सुमन सा
तेरे अहसास का
ये दायरा
पहचान करा देता है
मेरी , मेरे वजूद से
और मेरे शब्दों को
आकार दे देता है
मेरी कल्पना को
मूरत दे देता है
मैं उड़ने लगती हूँ
स्वछ्न्द गगन में
उन्मुक्त तुम संग
निर्भीक ,निडर
उस पंछी समान
जिसकी उड़ान में
कोई बन्धन नहीं
बस हर तरफ
राहें ही राहें हों
मन मेरे
तेरा ये अहसास
मुझे खुद से मिला देता है
मुझे जीना सिखा देता है
मन मेरे.....
मन मेरे...... !!
                                      सु-मन 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कैद-ए-रिहाई


               

                 जिंदगी उलझने लगी है, सब्र टूटने लगा है
                 खुद की आजमाइश में, दिल डूबने लगा है ।

                 वक़्त के पहलू में , जाकर हमने देखा
                 ये रेत की तरह, हाथों से फिसलने लगा है ।


                 विचारों की जुम्बिश में, भटकता हुआ मन
                 कैद-ए-रिहाई को , अब तड़पने लगा है ।


                                     


                                                            सुमन




गुरुवार, 21 जुलाई 2011

काश ऐसा होता…....



काश ऐसा होता

      उड़ सकती मैं भी
  
      खुले आसमां में

     पंछियों की तरह

बादलों के संग

        धीरे धीरे विचरती
  
               काश ऐसा होता.........

       चल सकती मैं भी

    हवा के साथ साथ

 गुनगुनाती हुई

        रागिनी की तरह

               काश ऐसा होता..........

        पहुंच जाती मैं भी

      तारों के गुलिस्ताँ में

 चाँद के संग

           चाँदनी की तरह

           इठलाती हुई

               निशा के संग

             धीरे-धीरे विचरती


            काश ऐसा होता.......

       काश ऐसा होता.......
          

                                                                                 सु..मन 

   

रविवार, 19 जून 2011

गम-ए-जिन्दगी

















अश्क बनकर बह गए जिन्दगी के अरमां

चाहतें  अधूरी रह  गई इसी  दरमियां


खाबों का घरौन्दा टूट कर बिखर गया

हमसे हमारा साया ही जैसे रूठ गया


फूल भी जैसे अब न बिखेर पाये खुशबू

कांटे ही कांटे हैं जीवन में जैसे हरसू


दिल जैसे रो रहा पर होंठ मुस्कराते

गम-ए-जिन्दगी का ज़हर पीते जाते


इस चमन से आज ये सुमन है पूछे

क्या पाया है उसने जिन्दगी से मिल के


क्या पाया है उसने जिन्दगी से मिल के............
                                              


                                       सु..मन                                                                    


शुक्रवार, 3 जून 2011

कभी-कभी सोचती हूँ...........






















जाने क्या है जाने क्या नहीं

बहुत है मगर फिर भी कुछ नहीं

तुम हो मैं हूँ और ये धरा

फिर भी जी है भरा भरा.........


कभी जो सोचूँ  तो ये पाऊँ

मन है बावरा कैसे समझाऊँ

कि न मैं हूँ न हो तुम

बस कुछ है तन्हा सा गुम.......................


                                                      
                                                                    सु..मन 

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

उल्फत

















कहते हैं इस दुनिया में

        हर चीज की अहमियत होती है

क्यों हमारे जज़्बातों के लिए

        इसकी कमी सी लगती है

जब समय के साथ

        हर चोट भर जाती है

क्यों हमारे ही जख्मों में

        इक टीस सी रहती है

ये पूछते हैं अकसर खुद से 2

        क्यों अपनी ही तमन्नाओं के सैलाब में

        हमारी उल्फत दबी सी रहती है........ !!

                               

                                                                            सु..मन 

मंगलवार, 29 मार्च 2011

तन्हा सी जिंदगी





















तन्हा सी इस जिंदगी को
         कोई सहारा तो चाहिए
दर दर भटकती रूह को
         कोई ठिकाना तो चाहिए
                   तन्हा सी..............

भंवर में घिरी कश्ती को
         कोई किनारा तो चाहिए
लहरों में फंसे मुसाफिर को
 तिनके का सहारा तो चाहिए
                    तन्हा सी..............

जीवन में आए सैलाब को
         थमने का भरोसा तो चाहिए
मन में उमड़े ख़यालों को
         सच होने का दिलासा तो चाहिए
                    तन्हा सी..............

आँखों में घिर आए बादलों को
         बहने का बहाना तो चाहिए
आस में डूबी इन निगाहों को
         मंजिल का नज़ारा तो चाहिए
                    तन्हा सी..............

हर पल मरती इन साँसों को
         जीने का सबब तो चाहिए
अंधियारे रास्तों पर बढ़ते कदमों को
         उजाले की आहट तो चाहिए
                    तन्हा सी..............

दिशाहीन दिमागी सोचों को
         दिशा की चाहत तो चाहिए
अंतरमन में उठते भावों को
         शब्दों की मिलावट तो चाहिए
                    तन्हा सी..............

खो ना जाऊँ दुनिया की भीड़ में तन्हा
         कुछ कदम तक साथ तो चाहिए
तेरे बिना मैं कुछ नहीं मालिक
         तेरे साथ की जरुरत तो चाहिए
                    तन्हा सी..............
                    तन्हा सी..............

                                            

                                                                                                     सु..मन 

सोमवार, 7 मार्च 2011

अस्तित्व

नारी दिवस पर मेरी एक पुरानी कविता .....
      
 अस्तित्व



दी मैनें दस्तक जब इस जहाँ में

कई ख्वाइशें पलती थी मन के गावं में

सोचा था कुछ करके जाऊंगी

जहाँ को कुछ बनकर दिखलाऊंगी

बचपन बदला जवानी ने ली अंगड़ाई

जिन्दगी ने तब अपनी तस्वीर दिखाई

मन पर पड़ने लगी अब बेड़ियां

रिश्तों में होने लगी अठखेलियां

जुड़ गए कुछ नव बन्धन

मन करता रहा स्पन्दन

बनी पत्नि बहू और माँ

अर्पित कर दिया अपना जहाँ

भूली अपने अस्तित्व की चाह

कर्तव्य की पकड़ ली राह

रिश्तों की ये भूल भूलैया

बनती रही सबकी खेवैया

फिसलता रहा वक्त का पैमाना

न रुका कोई चलता रहा जमाना

चलती रही जिन्दगी नए पग

पकने लगी स्याही केशों की अब

हर रिश्ते में आ गई है दूरी

जीना बन गया है मजबूरी

भूले बच्चे भूल गई दुनियां

अब मैं हूँ और मन की गलियां

काश मैनें खुद से भी रिश्ता निभाया होता

रिश्तों संग अपना अस्तित्व भी बचाया होता.................
                                                        

                                      

                                                                                        सु..मन 

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

जिन्दगी : बस यूँ ही
















     1

जिन्दगी की खुशियाँ
दामन में नहीं सिमटती
ऐ मौत ! आ
तुझे गले लगा लूँ...........


    2

जिन्दगी एक काम कर
मेरी कब्र पर
थोड़ा सकून रख दे
कि मर कर
जी लूँ ज़रा..........
   


  3
 
जिन्दगी दे दे मुझे
चन्द टूटे ख़्वाब
कुछ कड़वी यादें
कि जीने का
कुछ सामान कर लूँ........




                                                                            सु..मन 

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

“प्रकृति के रंग”


बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं....... इस अवसर पर मेरी एक पुरानी कविता डाल रही हूँ ।आशा करती हूँ आप सबको पसन्द आयेगी.....


शाम ढल आई

मेघ की गहराई

नीर बन आई

आसमा की तन्हाई

न किसे भी नज़र आई ;




रातभर ऐसे बरसे मेघ

सींचा हर कोना व खेत

न जाना कोई ये भेद

किसने खेला है ये खेल ;




प्रभात में खिला उजला रूप

धुंध से निकली किरणों मे धूप

खेत में महका बसंत भरपूर

अम्बर आसमानी दिखा मगरूर ;




पंछियों से उड़े मतवाले पतंग

डोर को थामे मन मस्त मलंग

मुग्ध हूँ देख “प्रकृति के रंग”

कैसे भीगी रात की तरंग

ले आई है रश्मि की उमंग !!





........................................         सु..मन 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

जिन्दगी–ए-उल्फत




















सबब है आखिर क्या
        
           ये किसने जाना है ;

जिन्दगी को यहाँ
       
           किसने अब तक जाना है ;

जिन्दगीए-उल्फत में यहाँ
        
           क्या किसी ने पाया है ;

दर्द-ए-दिल का ऐ सुमन
       
           न कोई यहाँ सरमाया है !!


सु..मन 

रविवार, 16 जनवरी 2011

मेरी कौन हो तुम !........ब्लॉग की पहली सालगिरह

आज बावरा मन को शूरू किए एक वर्ष हो गया और इस समय में बहुत कुछ पाया मैनें आप सभी से.....स्नेह , सुझाव और सबसे बड़ी बात आप सभी का साथ । कवि या लेखक का लिखना तब सार्थक हो जाता है जब उसकी लेखनी से उसके दिल की बात दूसरे तक पहुँच जाती है।आज ब्लॉग की पहली सालगिरह पर ये कविता आप सभी के सामने रख रही हूँ जो मेरे दिल बहुत करीब है.......



मेरी कौन हो तुम !


पूछती हो मुझसे
मेरी कौन हो तुम !



         मैं पथिक तुम राह
         मैं तरु तुम छाँव
         मैं रेत तुम किनारा
         मैं बाती तुम उजियारा


पूछती हो मुझसे मेरी..............


         मैं गीत तुम सरगम
         मैं प्रीत तुम हमदम
         मैं पंछी तुम गगन
         मैं सुमन तुम चमन


पूछती हो मुझसे मेरी..............


         मैं बादल तुम बारिश
         मैं वक्त तुम तारिख
         मैं साहिल तुम मौज
         मैं यात्रा तुम खोज

पूछती हो मुझसे मेरी...............


         मैं मन तुम विचार
         मैं शब्द तुम आकार
         मैं कृत्य तुम मान
         मैं शरीर तुम प्राण


पूछती हो मुझसे
मेरी कौन हो तुम
         मेरी कौन हो तुम...........
         मेरी कौन हो तुम...........!!


                                                                             
                                                                                  सुमन मीत
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